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Thursday, August 30, 2012
Fwd: [HamareSaiBaba] "भिक्षावृत्ति की आवश्यकता"
---------- Forwarded message ----------
From: Maneesh Bagga <maneeshbagga@saimail.com>
Date: 2012/8/30
Subject: [HamareSaiBaba] "भिक्षावृत्ति की आवश्यकता"
To: hamare sai <hamaresaibaba@googlegroups.com>
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From: Maneesh Bagga <maneeshbagga@saimail.com>
Date: 2012/8/30
Subject: [HamareSaiBaba] "भिक्षावृत्ति की आवश्यकता"
To: hamare sai <hamaresaibaba@googlegroups.com>
"भिक्षावृत्ति की आवश्यकता"
अब हम भिक्षावृत्ति के प्रश्न पर विचार करेंगें । संभव है, कुछ लोगों के मन में सन्देह उत्पन्न हो कि जब बाबा इतने श्रेष्ठ पुरुष थे तो फिर उन्होंने आजीवन भिक्षावृत्ति पर ही क्यों निर्वाह किया ।
इस प्रश्न को दो दृष्टिकोण समक्ष रख कर हल किया जा सकता हैं ।
पहला दृष्टिकोण – भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का कौन अधिकारी है ।
------------------
शास्त्रानुसार वे व्यक्ति, जिन्होंने तीन मुख्य आसक्तियों –
1. कामिनी
2. कांचन और
3. कीर्ति का त्याग कर, आसक्ति-मुक्त हो सन्यास ग्रहण कर लिया हो
– वे ही भिक्षावृत्ति के उपयुक्त अधिकारी है, क्योंकि वे अपने गृह में भोजन तैयार कराने का प्रबन्ध नहीं कर सकते । अतः उन्हें भोजन कराने का भार गृहस्थों पर ही है । श्री साईबाबा न तो गृहस्थ थे और न वानप्रस्थी । वे तो बालब्रहृमचारी थे । उनकी यह दृढ़ भावना थी कि विश्व ही मेरा गृह है । वे तो स्वया ही भगवान् वासुदेव, विश्वपालनकर्ता तथा परब्रहमा थे । अतः वे भिक्षा-उपार्जन के पूर्ण अधिकारी थे ।
दूसरा दृष्टिकोण
-----------------
पंचसूना – (पाँच पाप और उनका प्रायश्चित) – सब को यह ज्ञात है कि भोजन सामग्री या रसोई बनाने के लिये गृहस्थाश्रमियों को पाँच प्रकार की क्रयाएँ करनी पड़ती है –
1. कंडणी (पीसना)
2. पेषणी (दलना)
3. उदकुंभी (बर्तन मलना)
4. मार्जनी (माँजना और धोना)
5. चूली (चूल्हा सुलगाना)
इन क्रियाओं के परिणामस्वरुप अनेक कीटाणुओं और जीवों का नाश होता है और इस प्रकार गृहस्थाश्रमियों को पाप लगता है । इन पापों के प्रायश्चित स्वरुप शास्त्रों ने पाँच प्रकार के याग (यज्ञ) करने की आज्ञा दी है, अर्थात्
1. ब्रहमयज्ञ अर्थात् वेदाध्ययन - ब्रहम को अर्पण करना या वेद का अछ्ययन करना
2. पितृयज्ञ – पूर्वजों को दान ।
3. देवयज्ञ – देवताओं को बलि ।
4. भूतयज्ञ – प्राणियों को दान ।
5. मनुष्य (अतिथि) यज्ञ – मनुष्यों (अतिथियों) को दान ।
यदि ये कर्म विधिपूर्वक शास्त्रानुसार किये जायें तो चित्त शुदृ होकर ज्ञान और आत्मानुभूति की प्राप्ति सुलभ हो जाती हैं । बाबा दृार-दृार जाकर गृहस्थाश्रमियों को इस पवित्र कर्तव्य की स्मृति दिलाते रहते थे और वे लोग अत्यन्त भाग्यशाली थे, जिन्हें घर बैठे ही बाबा से शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिल जाता था ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
(श्री साईं सच्चरित्र अध्याय 9)
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